शेखावाटी को बोस ने दिया साहस का मंत्र

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010


आजादी के वीर व नेतृत्वकर्ता नेताजी सुभाषचंद्र बोस का शनिवार को जन्म दिवस है और इस दौरान राष्ट्र को उनके प्रेरणादायी योगदान की यादों को लेकर शहरभर में कार्यक्रम आयोजित होंगे। कुशल राजनेता, संकल्प को पूरा करने वाले व राष्ट्रप्रेम के लिए सब कुछ न्यौछावर करने वाले सुभाष बाबू को संपूर्ण भारत में उनके जन्म दिवस पर बड़ी श्रद्घा से याद किया जाता है। इंग्लैंड की सर्वश्रेष्ठ सरकारी सेवा ठुकराने, अपने कैरियर को राष्ट्र को समर्पित करने और अपने चातुर्य से हर भारतीय के मन में बसे नेताजी को उनकी तमाम उपलब्धियों से ज्यादा उनके जुनून के लिए जाना जाता है।
शेखावाटी के मन पर सदैव छाए रहे नेताजी
राजस्थान के क्रांतिवीरों में नेताजी जैसा जुनून शायद ही किसी और समकालीन नेता ने भरा हो। वैसे तो नेताजी कभी सीकर या शेखावाटी नहीं आए, लेकिन सीकर की आजादी के लिए उन्होंने आजादी के लिए लड़ रहे स्थानीय वीरों को साहस का मंत्र दिया था। जयपुर रियासत ने सीकर में आंतरिक हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था, जिसका सीकर के राजा कल्याणसिंह ने विरोध किया और परिणाम स्वरूप जयपुर के राजा मानसिंह ने सीकर पर हमला कर दिया। उस समय राष्ट्रीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रपति नेताजी थे और उन्होंने सीकर की मदद के लिए कोलकाता के मोहम्मद अली पार्क में मारवाड़ी व सीकर वासियों की विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि सीकर वासियों घबराओ नहीं, हम सबके प्रयास से भारत आजाद होगा और सीकर भी। उनकी याद में 5 जुलाई 1938 को बना शहर का सर्वप्रमुख सुभाष चौक उनकी बलिदानी व शौर्य गाथा को आज भी बयां करता है।

शेखावाटी में लिखा था ‘हे प्रभो आनंददाता’

अरविन्द शर्मा♦ जिस गीत को प्रार्थना में गाकर हम पढ़ाई शुरू करते थे। जिन पंक्तियों को आज भी गुनगुनाने से जोश भर आता है। बड़े-बुजुर्गो को अपनी पढ़ाई का जमाना याद आ जाता है। यह लोकप्रिय पंक्तियां हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमक ो दीजिए.. शेखावाटी में रची गई थी और इन दिनों इनको लिखे 100 साल पूरे हो गए हैं। इस लोकप्रिय प्रार्थना गीत को ज्यादातर लोग जानते हैं पर इसकी रचना शेखावाटी में की गई थी, ऐसा बहुत कम लोगों को पता है। रचनाकार के बारे में तो चुनिंदा लोग ही जानते हैं। उत्तरप्रदेश के सुल्तानपुर के रहवासी कवि स्वर्गीय पंडित राम नरेश त्रिपाठी ने यह प्रार्थना गीत 1910 में फतेहपुर मंे भामाशाह रामदयाल नेवटिया के घर लिखा था। त्रिपाठी तब यहां नेवटिया के घर आए थे। यहां काफी समय तक उन्होंने निवास किया था। नेवटिया ने अपने स्कूल के बच्चों के लिए उनसे प्रार्थना गीत लिखने की गुजारिश की थी।इस गीत को सुनकर नेवटिया इतने रोमांचित हुए कि उन्होंने त्रिपाठी को स्कूल का प्रधानाध्यापक बना दिया।
धन्य है शेखावाटी धरा % त्रिपाठी का शेखावाटी आने का भी दिलचस्प वाकया है। पं. त्रिपाठी नेवटिया परिवार के बिजनेस में हाथ बंटाते थे। इसी सिलसिले में वे कलकत्ता (अब कोलकाता) में थे। वे उदर रोग से इतने पीड़ित हुए कि उनको चिकित्सकों ने यह कह दिया था कि वे सप्ताहभर तक जीवित रहेंगे। नेवटिया परिवार 1909 में उनको फतेहपुर ले आया। श्रीगुलजारी लाल पांडेय अभिनंदन ग्रंथ में यह उल्लेख है कि यहां बाजरे की रोटी और छाछ पीने से उनका उदर रोग ठीक हो गया। इसके बाद उन्होंने दो विद्यालय, पुस्तकालय-अनाथालय संभाले और साहित्य साधना में रम गए। उन्होंने कई किताबों में शेखावाटी की जीभरकर तारीफ की है।

अनूठे हैं रघुनाथ मंदिर महणसर के भोलेनाथ


जेपी शर्मा. झुंझुनूं ♦ सिर पर स्वर्णवर्ण मुकुट, उसके साथ ही लिपटा काला सर्प, माथे पर चंदन का तिलक, शरीर पर धारण पीत वस्त्र... यह मनमोहिनी छवि है भोले भंडारी भगवान शिवशंकर की। सुनकर शायद आपको आश्चर्य हो लेकिन यह कल्पना नहीं सच है। इसी रूप में भगवान शिव अपने परिवार के साथ महणसर स्थित रघुनाथजी का बड़ा मंदिर में विराज रहे हैं। अब तक आपने जितनी भी शिव फोटो या प्रतिमाएं देखी होंगी वे सभी सिर पर लंबी जटाएं, जटाओं ने निकलती गंगधारा, माथे पर तीसरी आंख, गले में सर्पों की माला, हाथ में त्रिशूल, कमर पर बाघंबर और शरीर पर राख का लेप ... इन्हीं विशेषताओं से परिपूर्ण नजर है। लेकिन महणसर स्थित रघुनाथजी के बड़ा मंदिर शिवालय में भोले भंडारी की अनूठी प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है जिसे निहारने हर साल काफी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं। इस भव्य मंदिर का निर्माण सन् 1840-48 में महणसर निवासी शिवबक्सराय पोद्दार के पिता हरकंठराय पोद्दार ने करवाया था। उनके वंशज ओमप्रकाश पोद्दार ने बताया कि उस वक्त वे पानी के जहाज की बीमा का काम करते थे और देश भर में उनकी 52 शाखाएं थीं। काफी लंबा चौड़ा व्यापार था जो खूब फल-फूल रहा था। एक दिन अचानक अपने एक कीमती जहाज के डूब जाने की खबर से हरकंठराय को काफी आघात पहुंचा। इसके बाद से वे दुखी रहने लगे, कहीं उनका मन नहीं लगता था। एक दिन हरकंठराय ने दो बड़े मंदिरों के निर्माण का मन बनाया। जिसकी परिणति महणसर में रघुनाथजी के विशाल एवं भव्य मंदिर के रूप में हुई। इस मंदिर में रामदरबार, हनुमानजी और शिव परिवार की प्रतिमाएं हैं। यहां स्थित शिव परिवार में भगवान शिव की प्रतिमा अन्य शिव प्रतिमाओं से बिल्कुल अलग और अनूठी है। कहते हैं शिव की ऐसी प्रतिमा दुनिया में दो जगह हैं जिनमें से एक तो महणसर के इस मंदिर में है। यहां स्थित हनुमान मंदिर में भी हनुमान प्रतिमा के साथ मकरध्वज की प्रतिमा भी है जो अन्यत्र शायद ही देखने को मिले।

एक सैर हवेलियों के नाम


अरविन्द शर्मा♦ शेखावटी की हवेलियों को दुनिया की सबसे बडी ओपन आर्ट-गैलरी की भी संज्ञा दी जाती है। इन हवेलियों पर बने चित्र शेखावटी इलाके की लोक रीतियों, त्योहारों, देवी-देवताओं और मांगलिक संस्काराें से परिचय कराते हैं। ये इस इलाके के धनाड्य व्यक्तियों की कलात्मक रुचि की भी गवाही देते हैं। यूं तो इस इलाके में चित्रकारी की परंपरा छतरियों, दीवारों, मंदिरों, बावडियों और किलों-बुर्जो पर जहां-तहां बिखरी है। लेकिन धनकुबेरों की हवेलियां इस कला की खास संरक्षक बनकर रहीं। अ‌र्द्ध-रेगिस्तानी शेखावटी इलाका राव शेखाजी (1433-1488 ईस्वी) के नाम पर अस्तित्व में आया। व्यवसायी मारवाडी समुदाय का गढ यह इलाका कुबेरों की धरती, लडाकों की धरती, उद्यमियों की धरती, कलाकारों की धरती आदि कई नाम से जाना जाता है। अब यह इलाका अपनी हवेलियों और ऑर्गेनिक फार्मिग के लिए चर्चा में है।
शुरुआती दौर की पेंटिंग गीले प्लास्टर पर इटालियन शैली में चित्रित किए गए हैं, जिस शैली को फ्रेस्को बुआनो कहते हैं। इसमें चूना पलस्तर के सूखने की प्रक्रिया में ही रंगाई का सारा काम हो जाता था। वही इसकी दीर्घजीविता की भी वजह हुआ करती थी। कहा जाता है कि यह शैली मुगल दरबार से होती हुई पहले जयपुर और फिर वहां से शेखावटी तक पहुंची। मुगलकाल में यह कला यूरोपीय मिशनरियों के साथ भारत पहुंची थी। शुरुआती दौर के चित्रों में प्राकृतिक, वनस्पति व मिट्टी के रंगों का इस्तेमाल किया गया था। बाद के सालों में रसायन का इस्तेमाल शुरू हुआ और यह चित्रकारी गीले के बजाय सूखे पलस्तर पर रसायनों से की जाने लगी।
जानकार इस कला के विकास को यहां के वैश्यों की कारोबारी तरक्की से भी जोडते हैं। हालांकि अब आप इस इलाके में जाएं तो वह संपन्नता भले ही बिखरी नजर न आए लेकिन कुछ हवेलियों में चित्रकारी बेशक सलामत नजर आ जाती है। चित्रकारी की परंपरा यहां कब से रही, इसका ठीक-ठीक इतिहास तो नहीं मिलता। अभी जो हवेलियां बची हैं, उनकी चित्रकारी 19वीं सदी के आखिरी सालों की बताई जाती हैं। यकीनन उससे पहले के दौर में भी यह परंपरा रही होगी लेकिन रख-रखाव न होने के कारण कालांतर में वे हवेलियां गिरती रहीं। लेकिन हवेलियों में चित्र बनाने की परंपरा इस कदर कायम रही कि वर्ष 1947 से पहले बनी ज्यादातर हवेलियों में यह छटा बिखरी मिल जाती है।
राजस्थान के उत्तर-पूर्वी छोर पर स्थित झुंझुनूं जिला शेखावाटी अंचल की हृदयस्थली है। झुंझुनूं जिले का नवलगढ कस्बा कला की इस परंपरा की मुख्य विरासत को संजोये हुए है। नवलगढ की स्थापना राव शेखाजी के वंशज ठाकुर नवल सिंह जी ने लगभग ढाई सौ साल पहले की थी। कहा जा सकता है कि चित्रकारी की परंपरा भी उसके थोडे समय बाद ही जोर पकड गई होगी। यहां की हवेलियों की दीवारों पर बारहमासे का भी सुंदर चित्रांकन मिलता है। इनमें मध्यकालीन और रीतिकालीन जन-जीवन और राजस्थानी संस्कृति बिखरी है। कुछ हवेलियों पर देवी-देवताओं के चित्र बने हैं तो कुछ पर विवाह संबंधी या फिर लोक पर्वोके अलावा युद्ध, शिकार, कामसूत्र और संस्कारों के चित्र भी। नवलगढ ठिकाने के किले में कलात्मक बुर्जे हैं जहां जयपुर और नवलगढ के नक्शे और चित्र मिलते हैं। छतों व छतरियों में गुंबद के भीतरी हिस्से में भी गोलाकार चित्र बनाए गए हैं।
नवलगढ की हवेलियां आज भी अपने मालिकों की यश-गाथाएं दुहराती हैं। गोविंदराम सेक्सरिया की हवेली में पांच विशाल चौक, पैंतालीस-पैंतालीस फुट की दो बडी बैठकें, पचास कक्ष, हालनुमा दो तहखाने, कलात्मक बरामदे और बारीकियों के कामों से युक्त जालियां हैं। पूर्णतया चित्रांकित चोखाणी की हवेली के पौराणिक चित्र और दरवाजों की शीशम की चौखटों पर किए गए बारीक कलात्मक कार्योको देखकर कोई उसे पुरानी नहीं कह सकता। जयपुरियों और पाटोदियों की हवेलियां दो सौ वर्ष पूर्व निर्मित हैं तो सरावगियों की हवेली उनसे भी पहले की हैं। छावसरियों और पोद्दारों की हवेलियां डेढ-पौने दो सौ साल पहले की हैं। स्थित यह कि हवेलियां ही हवेलियां, एक के बाद दूसरी हवेली और खुर्रेदार चबूतरों की हवेलियां। रींगसियों की दो चौक की हवेली की दीवारों पर अनगिनत चित्र तो डीडवानियों की हवेली भी प्रसिद्ध। इन हवेलियों के डिजाइन की खूबी यह कि हर हवेली के सामने एक ऊंचा खुर्रा है जिस पर हाथी भी चढ सकता है।
मोरारका हवेली
यह हवेली नवलगढ की उन चुनिंदा हवेलियों में से है जो थोडे रखरखाव के कारण देखने लायक बची हैं। सन 1890 में केसरदेव मोरारका की बनाई यह हवेली अब संग्रहालय के रूप में सैलानियों के लिए खुली है जिसकी देखभाल एमआर मोरारका-जीडीसी रूरल फाउंडेशन कर रहा है। हवेलियों के जो हिस्से इतने लंबे काल में मौसम की सीधी मार से बचे रहे, वहां के चित्रों के रंग अब भी ताजा लगते हैं। भव्यता की डिग्री को छोड दिया जाए तो न केवल ज्यादातर हवेलियों की बनावट मिलती-जुलती है-दरवाजे, बैठक, परिंडे, दुछत्तियां, जनाना, पंखे, सबकुछ एक जैसे लगते हैं, चित्रकारी में भी खास अंतर नहीं है। चित्रकारी के अलावा हवेलियों के दरवाजे और भीतर कांच का काम भी आकर्षक रहा है। चित्रकारी मुगल व राजपूत शैलियों का मिला-जुला रूप है। जिन हवेलियों का रखरखाव हो रहा है, वहां इन पेंटिंग को बचाने की कोशिश हो रही हैं। दीवारों की मरम्मत हुई हैं, चित्रों की केमिकल ट्रीटमेंट से देखरेख हो रही है ताकि मौसम, धुएं, मिट्टी, गंदगी आदि को साफ किया जा सके। मोरारका हवेली में जहां पुरानी पेंटिंगों को नया रूप देने की कोई कोशिश नहीं की गई है और उनके मूल रूप को ही बचाए रखने पर जोर है, वहीं पोद्दार हवेली म्यूजियम में चित्रों को उसी तरह के रंगों का इस्तेमाल करके नया रूप दे दिया गया है और इससे वे बिलकुल नई जैसी लगती हैं। दोनों ही तरीकों ने एक ऐसी विरासत को सहेजकर रखा है जो अन्यथा बहुत तेजी से विलुप्त हो जातीं।
कब व कैसे
कडाके की गरमियों में इस इलाके में न ही जाएं तो सेहत के लिए बेहतर है। अक्टूबर से मार्च तक यहां का लुत्फ सबसे अच्छे तरीके से लिया जा सकता है। नवलगढ झूंझनू जिले में है। आप यहां दिल्ली व जयपुर दोनों जगहों से पहुंच सकते हैं। जयपुर से आएं तो चौमू व रींगस के रास्ते नवलगढ आया जा सकता है और यदि दिल्ली से आएं तो सडक मार्ग पर कोटपूतली तक आकर वहां से नीम का थाना होते हुए नवलगढ का रास्ता पकड लें।
कहां ठहरें:
सैलानियों की आवक को देखते हुए नवलगढ में हाल में कई छोटे होटल उभर आए हैं। रूपनिवास कोठी, ग्रांड हवेली रिसॉर्ट जैसे अच्छे व महंगे होटल भी हैं जो उन हवेलियों में ठहरने का आभास देंगे जो देखने सैलानी वहां पहुंचते हैं। इसके अलावा यदि आप ठेठ ग्रामीण मेजबानी का लुत्फ उठाना चाहते हैं तो सहज मोरारका टूरिज्म के रूरल टूरिज्म प्रोजेक्ट में कई गांवों में भी सैलानियों के ठहरने की व्यवस्था है।

संभावनाओं के फलक पर शेखावाटी


शेखावाटी में पिछले अर्से से शोध, प्राकृतिक चिकित्सा एवं ग्रामीण पर्यटन के लिए जो माहौल बना है, उससे काफी कुछ करने की गुंजाइशों को पंख लग गए हैं। इससे एक बात तो तय हो गई है कि अब घरेलु पर्यटक शेखावाटी के धार्मिक स्थलों पर जात-जड़ूले और विदेशी पर्यटक ओपन आर्ट गैलरी के रूप विलास को देखने ही ही नहीं आ रहे हैं, बल्कि इन सबसे अलग भी यहां बहुत कुछ ऐसा है, जो दुनियाभार को आकर्षित कर रहा है। इसकी वजह यहां की कुछ खासियतें हैं, जो कि इस क्षेत्र की अलग पहचान और प्रतिष्ठा बना रही हंै। विदेशी सैलानी ग्रामीण संस्कृति से रूबरू होने के साथ-साथ यहां के जलवायु, जैविक उत्पाद, वनस्पतियों और कृषि व संबंद्ध क्षेत्रों में शोध भी कर रहे हैं। यहां घूमने आने वाले विदेशी पर्यटकों का कहना है कि-यहां बहुत कुछ ऐसा है, जो नई उम्मीद की ओर इशारा कर रहा है। अपने खेत पर सैलानियों की मिजमानी करते किसान, फाइव स्टार होटलों के मीनू में शामिल यहां के जैविक उत्पाद और शिक्षा व खेल के क्षेत्र में यहां की प्रतिभाओं के शीर्ष मुकाम इसे अंतरराष्ट्रीय फलक पर बिठाने का ताना-बाना बुनते नजर आते हैं। शेखावाटी की प्राकृतिक व आयुर्वेदिक चिकित्सा भी सात समंदर पार डंका बजा रही है। इतिहास में दर्ज यह तथ्य भी गर्व का अहसास कराता है कि यहां की चिकित्सा पद्धति की ख्याति से प्रभावित हो देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद (जब वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे) ने सीकर में काफी समय रहकर दमा का उपचार करवाया था। आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में शेखावाटी में संभावनाओं का आकाश खुला है। इस संबंध में निजी स्तर पर भी अच्छे प्रयास हुए हैं। इन सुविधाओं को देखते हुए कनाड़ा, इंग्लैंड, रूस, यूएई और फ्रांस आदि देशों से भी काफी संख्या में स्वास्थ्य लाभ लेने के लिए लोग आते हैं। शोध प्राकृतिक चिकित्सा एवं ग्रामीण पर्यटन के क्षेत्र में पनपी संभावनाओं को भुनाने के लिए राज्य सरकार ने विशेष प्रोत्साहन देकर अभिनव पहल की है। निजी क्षेत्र के जोश और जुनून के बीच यदि सरकारी प्रयास ईमानदार रहे तो क्षेत्र के विकास को नई दिशा मिलने में काई संदेश नहीं रहेगा।

भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं सालासर हनुमान


हनुमानजी का यह मंदिर राजस्थान के चुरू जिले में है। गांव का नाम सालासर है, इसलिए `सालासरवाले बालाजी' के नाम से इनकी लोक प्रसिद्धि है। बालाजी की यह प्रतिमा बड़ी प्रभावशाली और दाढ़ी-मूंछ से सुशोभित है। मंदिर बहुत बड़ा है। दूर-दूर से भी यात्री अपनी मनोकामनाएं लेकर यहां आते हैं और इच्छित फल पाते हैं। यहां सेवा, पूजा तथा आय-व्यय संबंधी सभी अधिकार स्थानीय दायमा ब्राह्मणों को ही है, जो श्रीमोहनदासजी के भानजे उदयरामजी के वंशज हैं।
श्रीमोहनदासजी ही इस मंदिर के संस्थापक थे। ये बड़े वचनसिद्ध महात्मा थे। असल में श्रीमोहनदासजी सालासर से लगभग सोलह मील दूर स्थित रूल्याणी ग्राम के, निवासी थे। इनके पिताश्री का नाम लच्छीरामजी था। लच्छीरामजी के छ: पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्री का नाम कानीबाई था, मोहनदासजी सबसे छोटे थे। कानीबाई का विवाह सालासर ग्राम के निवासी श्रीसुखरामजी के साथ हुआ था, पर विवाह के पांच साल बाद ही (उदयराम नामक पुत्र प्राप्ति के बाद) सुखरामजी का देहांत हो गया। तब कानीबाई अपने पुत्र उदयरामजी सहित अपने पीहर रूल्याणी चली गयींी, किंतु कुछ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण अधिक समय तक वहां न रह सकीं और सालासर वापस आ गयीं। यह सोचकर कि `विधवा बहन कैसे अकेली जीवन-निर्वाह करेगी', मोहनदासजी भी उसके साथ सालासर चले आये। इस प्रकार कानीबाई, मोहनदासजी और उदयरामजी साथ-साथ रहने लगे।
श्रीमोहनदासजी आरंभ से ही विरक्त वृत्तिवाले व्यक्ति थे और श्रीहनुमानजी महाराज को अपना इष्टदेव मानकर उनकी पूजा करते थे। यही कारण था कि यदि वे किसी को कोई बात कह देते तो वह अवश्य सत्य हो जाती। एक दिन मोहनदासजी और उदयरामजी - दोनों अपने खेत में काम कर रहे थे कि मोहनदासजी बोले, `उदयराम! मेरे पीछे तो कोई देव पड़ा है, जो मेरा गंड़ासा छीनकर फेंक देता है।' उदयरामजी ने भी देखा कि बार-बार मोहनदासजी के हाथ से गंड़ासा दूर जा पड़ता है। उदयरामजी ने पूछा - `मामाजी! कौन देव हैं?' मोहनदासजी बोले - `बालाजी प्रतीत होते हैं।' यह बात ठीक से उदयरामजी की समझ में न आयी। घर लौटने पर उदयरामजी ने कानीबाई से कहा - `मां! मामाजी के भरोसे तो खेत में अनाज नहीं हो सकता।' यह कहकर खेतवाली सारी बात भी कह सुनायी। उसे सुनकर कानीबाई ने सोचा - `कहीं भाई मोहनदासजी संन्यास न ले लें।' अंत में उसने एक स्थान पर मोहनदासजी के लिए लड़की तय करके संबंध पक्का करने के लिए नाई को कुछ कपड़े और आभूषण देकर लड़कीवाले के यहां भेजा। पीछे थोड़ी देर बाद ही जब मोहनदासजी घर आये तो कानीबाई ने विवाह की सारी बात उनसे कही। तब वे हंसकर बोले, `पर बाई! वह लड़की तो मर गयी।' कानीबाई सहम गयी; क्योंकि वह जानती थी कि मोहनदासजी वचनसिद्ध हैं। दूसरे दिन नाई लौटा तो उसने भी बताया कि वह लड़की तो मर गयी। इस तरह मोहनदासजी ने विवाह नहीं किया और वे पूर्णरूप से श्रीबालाजी बजरंगबली की भक्ति में प्रवृत्त हो गये।
एक दिन मोहनदासजी, उदयरामजी और कानीबाई - तीनों अपने घर में बैठे थे कि दरवाजे पर किसी साधु ने आवाज दी। कानीबाई जब आटा लेकर द्वार पर गयीं तो वहां कोई दृष्टिगोचर न हुआ, तब इधर-उधर देखकर वह वापस आ गयीं और बोलांी, `भाई मोहनदास! दरवाजे पर तो कोई नहीं था।' तब मोहनदासजी बोले - `बाई! वे स्वयं बालाजी थे, पर तू देर से गयी।' तब कानीबाई बोली - `भाई! मुझे भी बालाजी के दर्शन करवाइये।' मोहनदासजी ने हामी भर ली। दो महीने के बाद ही उसी तरह द्वार पर फिर वही आवाज सुनायी दी। इस बार मोहनदासजी स्वयं द्वार पर गये और देखा कि बालाजी स्वयं हैं और वापस जा रहे हैं। मोहनदासजी भी उनके पीछे हो लिये। अंततोगत्वा बहुत निवेदन करने पर बालाजी वापस आये। तो वह भी इस शर्त पर कि `खीर-खांड़ के भोजन कराओ और सोने के लिए काम में न ली हुई खाट दो तो मैं चलूं।' मोहनदासजी ने स्वीकार कर लिया। बालाजी महाराज घर पधारे। दोनों बहन-भाई ने उनकी बहुत सेवा की। कुछ दिन पूर्व ही ठाकुर सालमसिंहजी के लड़के का विवाह हुआ था। उनके दहेज में आयी हुई खाट बिल्कुल नयी थी। वही बालाजी को सोने के लिए दी गयी।
एक दिन मोहनदासजी के मन में आया कि यहां श्रीबालाजी का एक मंदिर बनवाना चाहिये। यह बात ठाकुर सालमसिंहजी तक पहुंची। बात विचाराधीन ही चल रही थी कि उसी समय एक दिन गांव पर किसी की फौज चढ़ आयी। अचानक ऐसी स्थिति देखकर सालमसिंहजी व्याकुल हो गये। तब मोहनदासजी बोले - `डरने की कोई बात नहीं है। एक तीर पर नीली झंडी लगाकर फौज की ओर छोड़ दो, बजरंगबली ठीक करेंगे।' यही किया गया और वह आपत्ति टल गयी। इस घटना से मोहनदासजी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। सालमसिंहजी ने भी श्रीबालाजी की प्रतिमा स्थापित करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की। अब समस्या यह आयी कि मूर्ति कहां से मंगवायी जाय। तब मोहनदासजी ने कहा - `आसोटा' से मंगवा लो। आसोटा के सरदार के यहां सालमसिंहजी का पुत्र ब्याहा गया था। तुरंत ही वहां समाचार दिया गया कि आप श्रीबालाजी की एक प्रतिमा भिजवायें।

उधर आसोटा में उसी दिन एक किसान जब खेत में हल चला रहा था तो अचानक हल किसी चीज से उलझ गया। जब किसान ने खोदकर देखा तो वह बालाजी की मनमोहक प्रतिमा थी। वह तुरंत उसे लेकर ठाकुर के पास गया और मूर्ति देकर बोला, `महाराज! मेरे खेत में यह मूर्ति निकली है।' ठाकुर साहब ने वह मूर्ति महल में रखवा ली। उसे देखकर वे भी विस्मित थे। उन्होंने मूर्ति की यह विशेषता देखी कि उस पर हाथ फेरने से वह सपाट पत्थर मालूम पड़ती है और देखने पर मूर्ति है। यह घटना सं. १८११ वि. श्रावण शुक्ल ९ शनिवार की है। अचानक आसोटा के ठाकुर को उस प्रतिमा में से आवाज सुनायी दी कि `मुझे सालासर पहुंचाओ।' यह आवाज दो बार आयी, अब तक तो ठाकुर साहब ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था, पर तीसरी बार बहुत तेज आवाज आयी कि `मुझे सालासर पहुंचाओ।' उसी समय सालमसिंहजी का भेजा हुआ आदमी वहां पहुंच गया। इस तरह थोड़ी ही देर में मूर्ति बैलगाड़ी पर रखवा दी गयी और गाड़ी सालासर के लिए रवाना हो गयी।
इधर दूसरे दिन सालासर में जब मूर्ति पहुंचनेवाली ही थी कि मोहनदासजी, सालमसिंहजी तथा सारे गांव के लोग हरिकीर्तन करते हुए स्वागत के लिए पहुंचे। चारों ओर अत्यंत उत्साह और उल्लास उमड़ रहा था। अब समस्या यह खड़ी हुई कि प्रतिमा कहां प्रतिष्ठित की जाये। अंत में मोहनदासजी ने कहा कि `इस गाड़ी के बैलों को छोड़ दो, ये जिस स्थान पर अपने आप रुक जायें, वहीं प्रतिमा को स्थापित कर दो।' ऐसा ही किया गया। बैल अपने आप चल पड़े और एक तिकोने टीले पर जाकर रुक गये। इस तरह इसी टीले पर श्रीबालाजी की मूर्ति स्थापित की गयी। यह स्थापना वि.सं. १८११ श्रावण शुक्ल १० रविवार को हुई। मूर्ति की स्थापना के बाद यह गांव यहीं बस गया। इससे पूर्व यह गांव वर्तमान नये तालाब से उतना ही पश्र्चिम में था, जितना अब पूर्व में है। चूंकि सालमसिंहजी ने इस नये गांव को बसाया, अत: इसका (सालमसर से अपभ्रंश होकर) नाम सालासर पड़ा। इससे पहलेवाले गांव का नाम क्या था, यह पता नहीं चल सका। कुछ लोगों का विचार है कि यह नाम पुराने गांव का ही है, पर इस विषय में कोई तर्कसम्मत प्रमाण नहीं है।
प्रतिमा की स्थापना के बाद तुरंत ही तो मंदिर का निर्माण संभव न था, अत: ठाकुर सालमसिंहजी के आदेश पर सारे गांववालों ने मिलकर एक झोपड़ी बना दी। जब उसे बनाया जा रहा था तो पास के रास्ते से ही जूलियासर के ठाकुर जोरावरसिंहजी जा रहे थे। उन्होंने जब यह नयी बात देखी तो पास ही खड़े व्यक्तियों से पूछा, `यह क्या हो रहा है?' उन लोगों ने उत्तर दिया, `बावलिया स्वामी' ने बालाजी की स्थापना की है, उसी पर झोंपड़ी बनवा रहे हैं।' जोरावरसिंहजी बोले - `मेरी पीठ में अदीठ (एक प्रकार का फोड़ा) हो रहा है, उसे यदि बालाजी मिटा दें तो मंदिर के लिए मैं पांच रुपये चढ़ा दूं।' यह कहकर वे आगे बढ़ गये। अगले स्थान पर पहुंचकर जब उन्होंने स्नान के लिए कपड़े उतारे तो देखा कि पीठ में अदीठ नहीं है। उसी समय वापस आकर उन्होंने गठजोड़े की (पत्नी सहित) जात दी और पांच रुपये भेंट किये। यह पहला परचा - चमत्कार था।
अब मंदिर का निर्माण के लिए मोहनदासजी और उदयरामजी प्रयत्न करने लगे और अंत में एक छोटा-सा मंदिर बन गया। इसके अनंतर समय-समय पर विभिन्न श्रद्धालु भक्तों के सहयेाग से मंदिर का वर्तमान विशाल रूप हो गया। सुनते हैं, श्रीबालाजी तथा मोहनदासजी की ख्याति दूर-दूर फैल गयी। सुनते हैं, श्रीबालाजी और मोहनदासजी आपस में बातें भी किया करते थे। मोहनदासजी तो सदा भक्तिभाव में ही डूबे रहते थे, अत: सेवा-पूजा का कार्य उदयरामजी करते थे। उदयरामजी को मोहनदासजी ने एक चोगा दिया था, पर उसे पहनने से मनाकर पैरों के नीचे रख लेने को कहा। तभी से पूजा में यह पैरों के नीचे रखा जाता है। मंदिर में अखंड ज्योति (दीप) है, जो उसी समय से जल रही है। मंदिर के बाहर धूणां है। मंदिर में मोहनदासजी के पहनने के कड़े भी रखे हुए हैं। मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई की मृत्यु के बाद उन्होंने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है।
ऐसा बताते हैं कि यहां मोहनदासजी के रखे हुए दो कोठले थे, जिनमें कभी समाप्त न होनेवाला अनाज भरा रहता था, पर मोहनदासजी की आज्ञा थी कि इनको खोलकर कोई न देखें। बाद में किसी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, जिससे कोठलों की वह चमत्कारिक स्थिति समाप्त हो गयी।
इस प्रकार यह श्रीसालासर बालाजी का मंदिर लोक-विख्यात है, जिसमें श्रीबालाजी की भव्य प्रतिमा सोने के सिंहासन पर विराजमान है। सिंहासन के ऊपरी भाग में श्रीराम-दरबार है तथा निचले भाग में श्रीरामचरणों में हनुमानजी विराजमान हैं। मंदिर के चौक में एक जाल का वृक्ष है, जिसमें लोग अपनी मनोवांछा पूर्ति के लिए नारियल बांध देते हैं। भाद्रपद, आश्विन, चैत्र तथा वैशाख की पूर्णिमाओं को यहां मेले लगते हैं।

उद्योग से कोसों दूर खड़ी कुबरों की जन्मस्थली

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010


शेखावाटी क्षेत्र देशभर में उद्योगों का महाजाल फैलाने वाले उद्योगपतियों की जन्मस्थली होने के बावजूद उद्योगों से वंचित है। इन उद्योगपतियों ने किसी भी विश्ेाष उद्योग लगाने में पहल आज तक नहीं की।यहां के लाखों युवा रोजगार के लिए देशभर में भटकते नजर आते हैं। देशभर में फैले उद्योगपतियों में प्रमुख बजाज, बिड़ला, डालमिया, खेतान, पोद्दार, बगडिय़ा, सेकसरिया, चमडिय़ा, मोरारका, मोदी, लोहिया, रूंगटा, सिंद्यानिया आदि की जन्म स्थली शेखावाटी ही है। ये उद्योगपति देश के विभिन्न भागों में स्टील, चमड़ा, कपड़ा, जूट, चीनी, केमिकल, फर्टिलाइजर आदि क्षेत्रों में छोटे-बड़े उद्योगों के मालिक हैं लेकिन इन उद्योगपतियों का एक भी उद्योग इस क्षेत्र में नहीं है। इस क्षेत्र में उद्योग के नाम पर केवल भारत सरकार के सार्वजनिक प्रतिष्ठान हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड की इकाई खेतड़ी कॉपर काम्प्लेक्स को देखा जा सकता है। यहां आज भी क्षेत्र के हजारों लोग कार्यरत तो हैं लेकिन विगत दिनों उदारीकरण के पड़ते प्रतिकूल प्रभाव के कारण इसकी डंावाडोल स्थिति अस्थिर नजर आ रही है। इन उद्योगों में कार्यरत लोग शेखावाटी क्षेत्र के आस-पास बड़े उद्योग की तलाश कर रहे हैं जिसे इस क्षेत्र के जन्में उद्योगपति ही पूरा कर सकते हैं। यह एक विचारणीय मुद्दा है कि उद्योगपतियों की जन्म स्थली शेखावाटी आज तक उद्योग को तरस रही है। जबकि इन उद्योगपतियों ने क्षेत्र के विकास के लिए शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। शिक्षा व समाज सेवा के प्रकल्पों के साथ-साथ इस क्षेत्र के विकास के लिए उद्योग स्थापित किए जाने की महती आवश्यकता है। किसी भी जगह पर उद्योग स्थापित करने की दिशा में वर्हा की भौगोलिक परिवेश का सकारात्मक होना बहुत जरूरी है। शेखावाटी क्षेत्र आवागमन की सुविधा से बड़े रेलमार्ग से अभी तक वंचित होने के कारण देश के बड़े महानगरों से जुड़ पाया है। हाल ही बजट में ब्राडगेज की घोषणा के बाद इस दिशा में उम्मीदें जगी हैं।
इस क्षेत्र के विकास में दूसरी गंभीर समस्या जल संसाधनों की है। भूजल स्तर काफी नीचे चला गया है। पड़ोसी राज्य पंजाब व हरियाणा में फैली नहर योजना से इस क्षेत्र को जोडऩे की चर्चाएं चल तो रही हैं, लेकिन यह केवल राजनीतिक अस्तित्व बनकर ही उभरता नजर आ रहा है। इस तरह के हालात के बावजूद इस दिशा में सबसे बड़ी कमी सकारात्मक बौद्धिक सोच की भी रही है। क्षेत्र के महत्वाकांक्षी राजनीतिज्ञ एवं सामाजिक प्रवृत्ति से जुड़ी पृष्ठभूमि का क्षेत्र के विकास से ज्यादा स्वहित की सोच ने आज तक इस क्षेत्र को उपेक्षित रखा है। शेखावाटी क्षेत्र में उद्योगपतियों के सहयोग से महाजाल फैलाया जा सकता है। बशर्ते यहां पर जन्मे उद्योगपतियों को इस क्षेत्र में उद्योग लगाने के लिए प्रेरित किया जाए। इतना ही नहीं यहां उद्योगों के लिए जरूरी मूलभूत संसाधनों के लिए सार्थक प्रयास कर माहौल बनाया जाए। और उद्योग संबंधी संसाधन भूमि, जल, यातायात के साथ अपेक्षित सहयोग की पृष्ठभूमि दर्शायी जाए। इसके बाद निश्चित रूप से इस उपेक्षित क्षेत्र में विकास के अवसर बढ़ सकते हैं।

मेरी धरती पर जन्म लेगी ब्रह्मोस मिसाइल


शेखावाटी में पिछले अर्से से शोध, प्राकृतिक चिकित्सा एवं ग्रामीण पर्यटन के लिए जो माहौल बना है, उससे काफी कुछ करने की गुंजाइशों को पंख लग गए हैं। इससे एक बात तो तय हो गई है कि अब घरेलु पर्यटक शेखावाटी के धार्मिक स्थलों पर जात-जड़ूले और विदेशी पर्यटक ओपन आर्ट गैलरी के रूप विलास को देखने ही ही नहीं आ रहे हैं, बल्कि इन सबसे अलग भी यहां बहुत कुछ ऐसा है, जो दुनियाभार को आकर्षित कर रहा है। इसकी वजह यहां की कुछ खासियतें हैं, जो कि इस क्षेत्र की अलग पहचान और प्रतिष्ठा बना रही हंै।
इसी कड़ी में जो नाम शामिल हुआ है, वह वाकिये सोचने पर मजबूर नहीं करता है, बल्कि दुश्मनों के दांत भी खट्टे कर सकता है। देश को एक लाख से अधिक सैनिक दे चुके शेखावाटी की धरा पर अब ब्रह्मोस मिसाइल भी बनाई जाएगी। इसके लिए झुंझुनूं जिले के पिलानी के पास स्थित श्योसिंहपुरा, पीपली व डूलानिया में ब्रह्मोस मिसाइल प्रोडेक्शन सेंटर बनाने की कवायद शुरू हो चुकी है। जिसकी मिट्टी के कण-कण में देशभक्ति का जज्बा खून बनकर दौड़ता हो, सोचो ब्रह्मोस मिसाइल की एक बारगी तो अपने को धन्य ही मानेगी, क्योंकि यहां की मिट्टी पर उसका जन्म जो होने जा रहा है। राजस्थान सरकार ने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन को सुपसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस बनाने का कारखाना स्थापित करने के लिए 80 हैक्टेयर जमीन देने की मंजूरी दे दी है। डीआरडीओ की मानें तो दो साल में यहां मिसाइलों का उत्पादन भी शुरू हो जाएगा। यह कितनी बड़ी खुशी है, खुद पूर्व सैनिक भूराराम की जुबानी सुन लीजिए। कहते हैं, उन्होंने भी सेना में रहकर देश सेवा की है तथा अब उनके गांव में ही ब्रह्मोस मिसाइल का निर्माण उनके लिए सुखद पल है।

 
 
 

उद्योग से कोसों दूर खड़ी कुबरों की जन्मस्थली

उद्योग से कोसों दूर खड़ी कुबरों की जन्मस्थली
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भक्तों की मनोकामना पूरी हनुमान

भक्तों की मनोकामना पूरी हनुमान
हनुमानजी का यह मंदिर राजस्थान के चुरू जिले में है। गांव का नाम सालासर है, इसलिए `सालासरवाले बालाजी' के नाम से इनकी लोक प्रसिद्धि है। बालाजी की यह प्रतिमा बड़ी प्रभावशाली और दाढ़ी-मूंछ से सुशोभित है। read more click photo