भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं सालासर हनुमान

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010


हनुमानजी का यह मंदिर राजस्थान के चुरू जिले में है। गांव का नाम सालासर है, इसलिए `सालासरवाले बालाजी' के नाम से इनकी लोक प्रसिद्धि है। बालाजी की यह प्रतिमा बड़ी प्रभावशाली और दाढ़ी-मूंछ से सुशोभित है। मंदिर बहुत बड़ा है। दूर-दूर से भी यात्री अपनी मनोकामनाएं लेकर यहां आते हैं और इच्छित फल पाते हैं। यहां सेवा, पूजा तथा आय-व्यय संबंधी सभी अधिकार स्थानीय दायमा ब्राह्मणों को ही है, जो श्रीमोहनदासजी के भानजे उदयरामजी के वंशज हैं।
श्रीमोहनदासजी ही इस मंदिर के संस्थापक थे। ये बड़े वचनसिद्ध महात्मा थे। असल में श्रीमोहनदासजी सालासर से लगभग सोलह मील दूर स्थित रूल्याणी ग्राम के, निवासी थे। इनके पिताश्री का नाम लच्छीरामजी था। लच्छीरामजी के छ: पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्री का नाम कानीबाई था, मोहनदासजी सबसे छोटे थे। कानीबाई का विवाह सालासर ग्राम के निवासी श्रीसुखरामजी के साथ हुआ था, पर विवाह के पांच साल बाद ही (उदयराम नामक पुत्र प्राप्ति के बाद) सुखरामजी का देहांत हो गया। तब कानीबाई अपने पुत्र उदयरामजी सहित अपने पीहर रूल्याणी चली गयींी, किंतु कुछ पारिवारिक परिस्थितियों के कारण अधिक समय तक वहां न रह सकीं और सालासर वापस आ गयीं। यह सोचकर कि `विधवा बहन कैसे अकेली जीवन-निर्वाह करेगी', मोहनदासजी भी उसके साथ सालासर चले आये। इस प्रकार कानीबाई, मोहनदासजी और उदयरामजी साथ-साथ रहने लगे।
श्रीमोहनदासजी आरंभ से ही विरक्त वृत्तिवाले व्यक्ति थे और श्रीहनुमानजी महाराज को अपना इष्टदेव मानकर उनकी पूजा करते थे। यही कारण था कि यदि वे किसी को कोई बात कह देते तो वह अवश्य सत्य हो जाती। एक दिन मोहनदासजी और उदयरामजी - दोनों अपने खेत में काम कर रहे थे कि मोहनदासजी बोले, `उदयराम! मेरे पीछे तो कोई देव पड़ा है, जो मेरा गंड़ासा छीनकर फेंक देता है।' उदयरामजी ने भी देखा कि बार-बार मोहनदासजी के हाथ से गंड़ासा दूर जा पड़ता है। उदयरामजी ने पूछा - `मामाजी! कौन देव हैं?' मोहनदासजी बोले - `बालाजी प्रतीत होते हैं।' यह बात ठीक से उदयरामजी की समझ में न आयी। घर लौटने पर उदयरामजी ने कानीबाई से कहा - `मां! मामाजी के भरोसे तो खेत में अनाज नहीं हो सकता।' यह कहकर खेतवाली सारी बात भी कह सुनायी। उसे सुनकर कानीबाई ने सोचा - `कहीं भाई मोहनदासजी संन्यास न ले लें।' अंत में उसने एक स्थान पर मोहनदासजी के लिए लड़की तय करके संबंध पक्का करने के लिए नाई को कुछ कपड़े और आभूषण देकर लड़कीवाले के यहां भेजा। पीछे थोड़ी देर बाद ही जब मोहनदासजी घर आये तो कानीबाई ने विवाह की सारी बात उनसे कही। तब वे हंसकर बोले, `पर बाई! वह लड़की तो मर गयी।' कानीबाई सहम गयी; क्योंकि वह जानती थी कि मोहनदासजी वचनसिद्ध हैं। दूसरे दिन नाई लौटा तो उसने भी बताया कि वह लड़की तो मर गयी। इस तरह मोहनदासजी ने विवाह नहीं किया और वे पूर्णरूप से श्रीबालाजी बजरंगबली की भक्ति में प्रवृत्त हो गये।
एक दिन मोहनदासजी, उदयरामजी और कानीबाई - तीनों अपने घर में बैठे थे कि दरवाजे पर किसी साधु ने आवाज दी। कानीबाई जब आटा लेकर द्वार पर गयीं तो वहां कोई दृष्टिगोचर न हुआ, तब इधर-उधर देखकर वह वापस आ गयीं और बोलांी, `भाई मोहनदास! दरवाजे पर तो कोई नहीं था।' तब मोहनदासजी बोले - `बाई! वे स्वयं बालाजी थे, पर तू देर से गयी।' तब कानीबाई बोली - `भाई! मुझे भी बालाजी के दर्शन करवाइये।' मोहनदासजी ने हामी भर ली। दो महीने के बाद ही उसी तरह द्वार पर फिर वही आवाज सुनायी दी। इस बार मोहनदासजी स्वयं द्वार पर गये और देखा कि बालाजी स्वयं हैं और वापस जा रहे हैं। मोहनदासजी भी उनके पीछे हो लिये। अंततोगत्वा बहुत निवेदन करने पर बालाजी वापस आये। तो वह भी इस शर्त पर कि `खीर-खांड़ के भोजन कराओ और सोने के लिए काम में न ली हुई खाट दो तो मैं चलूं।' मोहनदासजी ने स्वीकार कर लिया। बालाजी महाराज घर पधारे। दोनों बहन-भाई ने उनकी बहुत सेवा की। कुछ दिन पूर्व ही ठाकुर सालमसिंहजी के लड़के का विवाह हुआ था। उनके दहेज में आयी हुई खाट बिल्कुल नयी थी। वही बालाजी को सोने के लिए दी गयी।
एक दिन मोहनदासजी के मन में आया कि यहां श्रीबालाजी का एक मंदिर बनवाना चाहिये। यह बात ठाकुर सालमसिंहजी तक पहुंची। बात विचाराधीन ही चल रही थी कि उसी समय एक दिन गांव पर किसी की फौज चढ़ आयी। अचानक ऐसी स्थिति देखकर सालमसिंहजी व्याकुल हो गये। तब मोहनदासजी बोले - `डरने की कोई बात नहीं है। एक तीर पर नीली झंडी लगाकर फौज की ओर छोड़ दो, बजरंगबली ठीक करेंगे।' यही किया गया और वह आपत्ति टल गयी। इस घटना से मोहनदासजी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। सालमसिंहजी ने भी श्रीबालाजी की प्रतिमा स्थापित करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की। अब समस्या यह आयी कि मूर्ति कहां से मंगवायी जाय। तब मोहनदासजी ने कहा - `आसोटा' से मंगवा लो। आसोटा के सरदार के यहां सालमसिंहजी का पुत्र ब्याहा गया था। तुरंत ही वहां समाचार दिया गया कि आप श्रीबालाजी की एक प्रतिमा भिजवायें।

उधर आसोटा में उसी दिन एक किसान जब खेत में हल चला रहा था तो अचानक हल किसी चीज से उलझ गया। जब किसान ने खोदकर देखा तो वह बालाजी की मनमोहक प्रतिमा थी। वह तुरंत उसे लेकर ठाकुर के पास गया और मूर्ति देकर बोला, `महाराज! मेरे खेत में यह मूर्ति निकली है।' ठाकुर साहब ने वह मूर्ति महल में रखवा ली। उसे देखकर वे भी विस्मित थे। उन्होंने मूर्ति की यह विशेषता देखी कि उस पर हाथ फेरने से वह सपाट पत्थर मालूम पड़ती है और देखने पर मूर्ति है। यह घटना सं. १८११ वि. श्रावण शुक्ल ९ शनिवार की है। अचानक आसोटा के ठाकुर को उस प्रतिमा में से आवाज सुनायी दी कि `मुझे सालासर पहुंचाओ।' यह आवाज दो बार आयी, अब तक तो ठाकुर साहब ने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था, पर तीसरी बार बहुत तेज आवाज आयी कि `मुझे सालासर पहुंचाओ।' उसी समय सालमसिंहजी का भेजा हुआ आदमी वहां पहुंच गया। इस तरह थोड़ी ही देर में मूर्ति बैलगाड़ी पर रखवा दी गयी और गाड़ी सालासर के लिए रवाना हो गयी।
इधर दूसरे दिन सालासर में जब मूर्ति पहुंचनेवाली ही थी कि मोहनदासजी, सालमसिंहजी तथा सारे गांव के लोग हरिकीर्तन करते हुए स्वागत के लिए पहुंचे। चारों ओर अत्यंत उत्साह और उल्लास उमड़ रहा था। अब समस्या यह खड़ी हुई कि प्रतिमा कहां प्रतिष्ठित की जाये। अंत में मोहनदासजी ने कहा कि `इस गाड़ी के बैलों को छोड़ दो, ये जिस स्थान पर अपने आप रुक जायें, वहीं प्रतिमा को स्थापित कर दो।' ऐसा ही किया गया। बैल अपने आप चल पड़े और एक तिकोने टीले पर जाकर रुक गये। इस तरह इसी टीले पर श्रीबालाजी की मूर्ति स्थापित की गयी। यह स्थापना वि.सं. १८११ श्रावण शुक्ल १० रविवार को हुई। मूर्ति की स्थापना के बाद यह गांव यहीं बस गया। इससे पूर्व यह गांव वर्तमान नये तालाब से उतना ही पश्र्चिम में था, जितना अब पूर्व में है। चूंकि सालमसिंहजी ने इस नये गांव को बसाया, अत: इसका (सालमसर से अपभ्रंश होकर) नाम सालासर पड़ा। इससे पहलेवाले गांव का नाम क्या था, यह पता नहीं चल सका। कुछ लोगों का विचार है कि यह नाम पुराने गांव का ही है, पर इस विषय में कोई तर्कसम्मत प्रमाण नहीं है।
प्रतिमा की स्थापना के बाद तुरंत ही तो मंदिर का निर्माण संभव न था, अत: ठाकुर सालमसिंहजी के आदेश पर सारे गांववालों ने मिलकर एक झोपड़ी बना दी। जब उसे बनाया जा रहा था तो पास के रास्ते से ही जूलियासर के ठाकुर जोरावरसिंहजी जा रहे थे। उन्होंने जब यह नयी बात देखी तो पास ही खड़े व्यक्तियों से पूछा, `यह क्या हो रहा है?' उन लोगों ने उत्तर दिया, `बावलिया स्वामी' ने बालाजी की स्थापना की है, उसी पर झोंपड़ी बनवा रहे हैं।' जोरावरसिंहजी बोले - `मेरी पीठ में अदीठ (एक प्रकार का फोड़ा) हो रहा है, उसे यदि बालाजी मिटा दें तो मंदिर के लिए मैं पांच रुपये चढ़ा दूं।' यह कहकर वे आगे बढ़ गये। अगले स्थान पर पहुंचकर जब उन्होंने स्नान के लिए कपड़े उतारे तो देखा कि पीठ में अदीठ नहीं है। उसी समय वापस आकर उन्होंने गठजोड़े की (पत्नी सहित) जात दी और पांच रुपये भेंट किये। यह पहला परचा - चमत्कार था।
अब मंदिर का निर्माण के लिए मोहनदासजी और उदयरामजी प्रयत्न करने लगे और अंत में एक छोटा-सा मंदिर बन गया। इसके अनंतर समय-समय पर विभिन्न श्रद्धालु भक्तों के सहयेाग से मंदिर का वर्तमान विशाल रूप हो गया। सुनते हैं, श्रीबालाजी तथा मोहनदासजी की ख्याति दूर-दूर फैल गयी। सुनते हैं, श्रीबालाजी और मोहनदासजी आपस में बातें भी किया करते थे। मोहनदासजी तो सदा भक्तिभाव में ही डूबे रहते थे, अत: सेवा-पूजा का कार्य उदयरामजी करते थे। उदयरामजी को मोहनदासजी ने एक चोगा दिया था, पर उसे पहनने से मनाकर पैरों के नीचे रख लेने को कहा। तभी से पूजा में यह पैरों के नीचे रखा जाता है। मंदिर में अखंड ज्योति (दीप) है, जो उसी समय से जल रही है। मंदिर के बाहर धूणां है। मंदिर में मोहनदासजी के पहनने के कड़े भी रखे हुए हैं। मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई की मृत्यु के बाद उन्होंने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है।
ऐसा बताते हैं कि यहां मोहनदासजी के रखे हुए दो कोठले थे, जिनमें कभी समाप्त न होनेवाला अनाज भरा रहता था, पर मोहनदासजी की आज्ञा थी कि इनको खोलकर कोई न देखें। बाद में किसी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, जिससे कोठलों की वह चमत्कारिक स्थिति समाप्त हो गयी।
इस प्रकार यह श्रीसालासर बालाजी का मंदिर लोक-विख्यात है, जिसमें श्रीबालाजी की भव्य प्रतिमा सोने के सिंहासन पर विराजमान है। सिंहासन के ऊपरी भाग में श्रीराम-दरबार है तथा निचले भाग में श्रीरामचरणों में हनुमानजी विराजमान हैं। मंदिर के चौक में एक जाल का वृक्ष है, जिसमें लोग अपनी मनोवांछा पूर्ति के लिए नारियल बांध देते हैं। भाद्रपद, आश्विन, चैत्र तथा वैशाख की पूर्णिमाओं को यहां मेले लगते हैं।

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